शरीर में चेतना का उदय | अज्ञानता का नाश | दुःख से सुख की प्राप्ति कैसे हो?

शरीर में चेतना का उदय | अज्ञानता का नाश | दुःख से सुख की प्राप्ति कैसे हो?


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दुःख से सुख की प्राप्ति


महान् पुण्य के फलस्वरूप तथा महती भगवत्कृपा से तुम्हें यह मनुष्य - शरीर प्राप्त हुआ है । यह मानव शरीर संसाररूपी दु:ख - समुद्र को पार करने के लिये सुन्दर सुखमय नौका के समान है । अतएव जबतक यह नौका किसी चट्टान आदि से टकराकर टूट नहीं जाती अर्थात् जबतक यह शरीर बना हुआ है , मृत्यु नहीं हो जाती , तभी तक इसके द्वारा संसार सागर को पार कर लेना चाहिये । 


जन्म - मरणरूपी यह संसार सर्वथा अनित्य , अपूर्ण अतएव दु:ख का समुद्र है । जिस प्रकार सागर में ऊँची नीची तरंगें उठा - मिटा करती हैं , उसी प्रकार संसार में ऊँचे नीचे शरीरों की उत्पत्ति तथा नाश हुआ करता है । इन सारे शरीरों में एक मनुष्य - शरीर ही ऐसा है , जिसमें साधन के द्वारा जीव इस जन्म - मरण रूप घोर सागर से पार जा सकता है , परंतु यह शरीर है अत्यन्त क्षणभङ्गुर । कमल के पत्रपर पड़ी हुई जलकी बूंद जैसे जरा - सा हवाका झोंका लगते ही गिर पड़ती है , वैसे ही इस शरीर का अन्त भी क्षणमात्र में हो जाता है । अतएव इसके नाश से पूर्व ही साधन में सफलता प्राप्त कर लेनी चाहिये । 


शरीर में चेतना का उदय


तुम शरीर नहीं , आत्मा हो । आत्मा जन्म मरण से रहित नित्य सत्य है । इसमें न उत्पत्ति है न विनाश , न सुख है न दुःख । प्रकृति के साथ तादात्म्य हो जाने से यानी कारण , सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर से आबद्ध हो जाने से इस में जन्म मरण का - सुख - दुःख का आरोप हो गया है । 


स्थूल शरीर पञ्चभूतों का कार्य होने से जड है । इसमें चेतनता  दिखने का कारण है इसके भीतर रहने वाला सूक्ष्म शरीर , जो इसे चेतना देता है । वस्तुत: वह सूक्ष्म शरीर भी सत्तरह या उन्नीस ( पञ्चप्राण , पाँच ज्ञानेन्द्रिय , पाँच कर्मेन्द्रिय , मन तथा बुद्धि अथवा मन - बुद्धि - चित्त - अहंकार ) तत्त्वों से बना होने के कारण स्वभाव से जड ही है , पर चेतन आत्मा का प्रकाश लेकर वह स्वयं चेतन बना हुआ स्थूल शरीर में चेतना का उदय कराता है ।


क्या है अज्ञानता


आत्मस्वरूप की विस्मृति या भगवदंश स्वरूप से च्युति ही अज्ञान है । यह अज्ञान ही ' कारण - शरीर ' है । नित्य सत्य आत्मा में जन्म - मरण न होने पर भी , आत्मा में भोक्तापन न होनेपर भी अज्ञान के कारण वह अपने को जन्म मरण वाला तथा भोगों का भोक्ता मानता है , यही उसका ' जीव' स्वरूप है और जबतक वह अपने को जीव मानता रहेगा , तब तक जन्म - मृत्यु का चक्र या भवप्रवाह चालू ही रहेगा । 


अज्ञानवश शरीर के धर्म को अपने में कल्पित करके जीवभाव को प्राप्त आत्मा स्थूल शरीर के जन्म - मरण को अपना जन्म - मरण , जन्म के कष्ट को कष्ट , मृत्यु की यातना को यातना , प्राणों की भूख को भूख , शरीर की अपवित्रता से अपवित्र तथा शरीर की हानि से अपनी हानि मानता है और इनके निवारण का उपाय सोचता है । स्वयं सर्वथा संगरहित होकर भी राग - द्वेष को अपनाकर दुखी होता है , सुखस्वरूप होकर भी शरीर के दुःख से दुखी होता है । यही अज्ञान है और इसी अज्ञान से यह संसार समुद्र बना हुआ है । 


अज्ञानता का नाश कैसे हो


इस अज्ञान का नाश करना - इस संसार समुद्र से पार होना ही तुम्हारा काम है , इसीलिये मानव - शरीर मिला है । इसलिये तुमको चाहिये कि तुम लोकधर्म से प्रापञ्चिक हानि - लाभ से मन हटाकर अन्त: करण को शुद्ध कर लो , भगवान के भजन के द्वारा अपने सत्यस्वरूप को समझो और अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर इस असार तथापि भीषण भव - समुद्र से पार हो जाओ । तुम संसार या शरीर नहीं हो । तुम मन , बुद्धि , इन्द्रिय नहीं हो , न ये सब तुम्हारे हैं । ये सब तुमसे भिन्न हैं , क्योंकि ये सभी दृश्य हैं । तुम तो सबके द्रष्टा हो । 

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