मनसा देवी की कथा ! जरत्कारू ऋषि की कथा | कौन थे जरत्कारू ऋषि?

मनसा देवी की कथा ! जरत्कारू ऋषि की कथा | कौन थे जरत्कारू ऋषि?

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जरत्कारू

"जरा" शब्द का अर्थ है क्षय, "कारु" शब्द का अर्थ है दारूण। तात्पर्य यह है कि उनका शरीर पहले बड़ा दारूण अर्थात खट्टा खट्टा था। उन्होंने तपस्या करके उसे क्षीण बना लिया। इसी से उनका नाम जरत्कारू पड़ा। वासुकि नाग की बहिन भी पहले वैसी ही थी, उसने भी अपने शरीर को तपस्या के द्वारा क्षीण कर लिया इसलिए वह भी जरत्कारू  कहलाई।

जरत्कारू ऋषि की कथा

राजा परीक्षित का राज्यकाल था, तब जरत्कारू ऋषि बहुत दिनों तक ब्रहमचर्य धारण करके तपस्या से संलग्न रहे वह जप, तप और स्वाध्याय में लगे रहते तथा निर्भय होकर स्वच्छंद रुप से पृथ्वी पर घूमते थे। मुनिवर का नियम था कि जहां संध्या हो जाती थी, वही ठहर जाते थे। वे पवित्र तीर्थ में जाकर स्नान करते और ऐसे कठोर नियमों का पालन करते, जिनकी पालना सामान्य व्यक्ति के लिए असंभव थी।

वह केवल वायु पीकर निराहार करते थे। इस प्रकार उनका शरीर तृप्त तृणवत सूख गया था। एक दिन यात्रा करते समय उन्होंने देखा कि कुछ पितर नीचे की ओर किए एक गड्ढे में लटक रहे हैं। वह एक खस का तिनका पकड़े हुए थे और वही केवल बच भी रहा था। उस तिनके की जड़ को भी धीरे-धीरे एक चूहा कुतर रहा था।

पितृगण निराहार थे, दुबले और दुखी थे। जरत्कारू ने उनके पास जाकर पूछा - आप लोग जिस खस के तिनके का सहारा लेकर लटक रहे हैं उसे एक चूहा कुतरता जा रहा है। आप लोग कौन हैं ? जब इस खस की जड़ कट जाएगी, तब आप लोग नीचे की ओर मुंह किए गड्ढे में गिर जाएंगे। आप लोगों को इस अवस्था में देख कर मुझे बड़ा दुख हो रहा है। मैं आपकी क्या सेवा करूं ? आप लोग मेरी तपस्या के चौथे तीसरे या आधे भाग से इस विपत्ति से बचाए जा सके, तो बतलाऔ ! और तो क्या मैं अपनी सारी तपस्या का फल देकर भी आप लोगों को बचाना चाहता हूं। आप आज्ञा कीजिए।

पितरों ने कहा - आप बूढ़े ब्रहमचारी हैं। हमारी रक्षा करना चाहते हैं। परंतु हमारी विपत्ति तपस्या के बल से नहीं टल सकती। तपस्या का फल तो हमारे पास भी है, परंतु वंश परंपरा के नाश के कारण हम इस घोर नरक में गिर रहे हैं। आप वृद्ध होकर करुणावश हमारे लिए चिंतित हो रहे हैं, इसलिए हमारी बात सुनिए !

हम लोग यायावर नाम के ऋषि हैं। वंश परंपरा क्षीण हो जाने से हम पुण्य लोको से नीचे गिर गए हैं। हमारे वंश में अब केवल एक ही व्यक्ति रह गया है, वह भी नहीं के बराबर है। हमारे अभाग्य से वह तपस्वी हो गया है। उसका नाम जरत्कारू है। वह वेद वेद वेदांगों का विद्वान तो है ही संयमी उदास और व्रतशील है। उसने तपस्या के लोभ से हमें संकट में डाल दिया है। उसके कोई भाई-बंधु अथवा पत्नी पुत्र नहीं है। इसी से हम लोग बेहोश होकर अनाथ की तरह गड्ढे में लटक रहे हैं। यदि वह आपको कहीं मिले तो उससे इस प्रकार कहना।

जरत्कारू ! तुम्हारे पितर नीचे मुंह करके गड्ढे में लटक रहे हैं। तुम विवाह करके संतान उत्पन्न करो। अब हमारे वंश में तुम ही एक आश्रय हो। ब्रहमचारी जी यह तो आप खस की जड़ देख रहे हैं, यही हमारे वंश का सहारा है। हमारी वंश परंपरा के जो लोग नष्ट हो चुके हैं, वही इसकी कटी हुई जड़े हैं। यह अधकटी जड़ ही जरत्कारू है। जड़ कुतरने वाला चूहा महाबली काल है। यह एक दिन जरत्कारू को भी नष्ट कर देगा। तब हम लोग और भी विपत्ति में पड़ जाएंगे, आप जो कुछ देख रहे हैं वह सब जरत्कारू से कहिएगा। कृपा करके यह बताइए कि आप कौन हैं, और हमारे बंधू की तरह हमारे लिए क्यों शोक कर रहे हैं ?

पितरों की बात सुनकर जरत्कारू को बड़ा शोक हुआ। उन्होंने गदगद वाणी से अपने पितरों से कहा ! आप लोग मेरे ही पिता हैं, मैं आप लोगों का अपराधी पुत्र जरत्कारू हूं। आप लोग मुझ अपराधी को दंड दीजिए और मेरे करने योग्य काम बताइए। पितरों ने कहा बेटा बड़े सौभाग्य की बात है, कि तुम संयोगवश यहां आ गए। भला बताओ तो तुमने अब तक विवाह क्यों नहीं किया। जरत्कारू ने कहा ! पित्रगण मेरे हृदय में यह बात घूमती रहती है किमैं अखंड ब्रहमचर्य का पालन करके स्वर्ग प्राप्त करूं।

मैंने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था, कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा ! परंतु आप लोगों को उल्टे लटके देखकर मैंने अपना ब्रहमचर्य का निश्चय पलट दिया है। अब मैं आप लोगों के लिए निसंदेह विवाह करूंगा। यदि मुझे मेरे ही नाम की कन्या मिल जाएगी और वह भी भिक्षा की तरह। तो मैं उसे पत्नी के रुप में स्वीकार कर लूंगा। परंतु उसके भरण पोषण का भार नहीं उठाऊंगा। एसी सुविधा मिलने पर ही मैं विवाह करूंगा अन्यथा नहीं। आप लोग चिंता न करें ! आपके कल्याण के लिए मुझसे पुत्र होगा, और आप परलोक में सुख से रहेंगे।

जरत्कारू अपने पितरों से इस प्रकार कहकर पृथ्वी पर विचरने लगे। परंतु एक तो उन्हें बूढ़ा समझकर कोई उनसे अपनी कन्या का विवाह नहीं करना चाहता था, और दूसरे उन के अनुरूप  कन्या भी नहीं मिल रही थी। वे निराश होकर वन में गए और पितरों के हित के लिए तीन बार धीरे धीरे बोले ? मैं कन्या की याचना करता हूं यहां जो भी चर-अचर अथवा गुप्त या प्रगट प्राणी हैं वे मेरी बात सुने !

मैं पितरों का दुख मिटाने के लिए उनकी प्रेरणा से कन्या की भीख मांग रहा हूं।  जिस कन्या का नाम मेरा ही हो, जो भिक्षा की तरह मुझे दी जाए और उसके भरण पोषण का भार मुझ पर न रहे, एसी कन्या मुझे प्रदान करो। वासुकि नाग के द्वारा नियुक्त सर्प जरत्कारू की बात सुनकर नागराज के पास गए और उन्होंने चटपट अपनी बहिन लाकर भिक्षा रूप में जरत्कारू ऋषि को समर्पित की। जरत्कारू ऋषि ने उसके नाम और भरण पोषण की बात जाने बिना अपनी प्रतिज्ञा के विपरीत उसे स्वीकार नहीं किया और वासुकि से पूछा कि - मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा।

वासुकि नाग ने कहा - इस तपश्विनि कन्या का नाम भी जरत्कारू है और यह मेरी बहिन है। मैं इसका भरण पोषण और रक्षा करूंगा। आपके लिए ही मैंने इसे अब तक रख छोड़ा है। जरत्कारू ऋषि ने कहा मैं इसका भरण पोषण नहीं करूंगा, यह शर्त तो हो ही चुकी। इसके अतिरिक्त एक शर्त यह है कि यह कभी मेरा प्रिय कार्य न करें। यदि करेगी तो मैं इसे अवश्य छोड़ दूंगा। जब नागराज वासुकि ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली तब वे उनके घर गए। वहां विधि पूर्वक विवाह संस्कार संपन्न हुआ। जरत्कारू ऋषि अपनी पत्नी जरत्कारू के साथ वासुकि नाग के श्रेष्ठ भवन में रहने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी को भी शर्त की सूचना दे दी। मेरी रुचि के विरुद्ध कुछ करना और न कहना, वैसा करोगी ! तो मैं तुम्हें छोड़कर चला जाऊंगा। उनकी पत्नी ने स्वीकार किया और वह सावधान रहकर उनकी सेवा करने लगी। समय पर उसे गर्भ रह गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा।

 एक दिन की बात है कि जरत्कारू ऋषि कुछ  खिन्न से होकर अपनी पत्नी को की गोद में सिर रखकर सोए हुए थे। वे सो ही रहे थे कि सूर्यास्त का समय हो गया। ऋषि-पत्नी ने सोचा कि पति को जगाना धर्म के अनुकूल होगा या नहीं ? यह बड़े कष्ट उठा कर धर्म का पालन करते हैं, कहीं जगाने या न जगाने से मैं अपराधी तो नहीं हो जाऊंगी ? जगाने पर इनके कोप का भय है, और न जगाने पर धर्म लोप का। अंत में वह इस निश्चय पर पहुंची कि यह चाहे कोप करें, परंतु इन्हें धर्म लोप से बचाना चाहिए।

ऋषि पत्नी ने बड़ी मधुर वाणी से कहा महाभाग ! उठिए सूर्यास्त हो रहा है। आचमन करके संध्या कीजिए। यह अग्निहोत्र का समय है। पश्चिम दिशा लाल हो रही है। जरत्कारू ऋषि जगे, क्रोध के मारे उनका होंठ कांपने लगा। उन्होंने कहा सर्पिणि तूने मेरा अपमान किया है अब मैं तेरे पास नहीं रहूंगा। जहां से आया हूं वही चला जाऊंगा। मेरे हृदय में यह दृढ़ निश्चय है कि मेरे सोते रहने पर सूर्य अस्त नहीं हो सकते थे। अपमान के स्थान पर रहना अच्छा नहीं लगता, अब मैं जाऊंगा। अपने पति की हृदय में कंपकंपी पैदा करने वाली बात सुनकर ऋषि पत्नी ने कहा भगवान ! मैंने अपमान करने के लिए आपको नहीं जगाया है। आपके धर्म का लोप न हो, मेरी यही दृष्टि थी। जरत्कारू ऋषि ने कहा ! एक बार जो मुंह से निकल गया वह झूठा नहीं हो सकता। मेरे तुम्हारे बीच इस प्रकार की शर्त तो पहले ही हो चुकी है। तुम मेरे जाने के बाद अपने भाई से कहना, कि वे चले गए। यह भी कहना कि मैं यहां बड़े सुख से रहा। मेरे जाने के बाद तुम किसी प्रकार की चिंता मत करना।

ऋषि पत्नी शोक ग्रस्त हो गई। उसका मुख सूख गया। वाणी गदगद  हो गई। आंखों में आंसू भर आए। उसने कांपते हृदय से धीरज धरकर हाथ जोड़कर कहा धर्मज्ञ ! मुझ निरपराध को मत छोड़िए, मैं धर्म पर अटल रहकर आपके प्रिय और हित में संलग्न रहती हूं। मेरे भाई ने एक प्रयोजन लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था, अभी वह पूरा नहीं हुआ।

हमारे जाति-भाई कद्दू-माता के श्राप से ग्रस्त हैं। आपसे एक संतान होने की आवश्यकता है। उसी से हमारी जाति का कल्याण होगा। आपका और मेरा संयोग निष्फल नहीं होना चाहिए। अभी मेरे गर्भ में संतान भी तो नहीं हुई, फिर आप मुझे निरापराध अबला को छोड़कर क्यों जाना चाहते हैं ? पत्नी की बात सुनकर ऋषि ने कहा - तुम्हारे पेट में अग्नि के समान तेजस्वी गर्भ है, जो बहुत बड़ा विद्वान और धर्मात्मा ऋषि होगा यह कहकर जरत्कारू ऋषि चले गए।

पति के जाते ही ऋषि-पत्नी अपने भाई वासुकि की के पास गई और उनके जाने का समाचार सुनाया। यह अप्रिय घटना सुनकर वासुकि को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने कहा - बहिन ! हमने जिस उद्देश्य के साथ तुम्हारा विवाह किया था। वह तो तुम्हें मालूम ही है, यदि उनके द्वारा तुम्हारे गर्भ से पुत्र हो जाता है तो नागों का भला होगा।

वह पुत्र ब्रहमा जी के कथनानुसार अवश्य ही जनमेजय के यज्ञ से हम लोगों की रक्षा करता। बहिन तुम उनके द्वारा गर्भवती हुई हो न ? हम चाहते हैं कि तुम्हारा विवाह निष्फल न हो। अपनी बहिन से भाई का यह पूछना उचित नहीं है, फिर भी प्रयोजन के गौरव को देखते हुए मैंने यह प्रश्न किया है। मैं जानता हूं कि जब उन्होंने एक बार जाने की बात कह दी तो उन्हें लौटाना असंभव है। मैं उनसे इसके लिए कहूंगा भी नहीं, कही वे मुझे शाप न दे दें। बहिन ! तुम सब बात मुझसे कहो और मेरे हृदय से यह संकट का कांटा निकाल दो।

ऋषि पत्नी ने अपने भाई वासुकि नाग की हिम्मत बांधते हुए कहा - भाई मैंने भी उनसे यह बात कही थी। उन्होंने कहा है कि गर्भ है। उन्होंने कभी विनोद से भी कोई झूठी बात नहीं कही है। फिर इस संकट के अवसर पर तो उनका कहना झूठ हो ही कैसे सकता है। उन्होंने जाते समय मुझसे कहा कि नागकन्ये ! अपनी प्रयोजन सिद्धि के संबंध में कोई चिंता नहीं करना। तुम्हारे गर्भ में अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र होगा। इसलिए भाई ! तुम अपने मन में किसी प्रकार का दुख न करो। यह सुनकर वासुकि बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपनी बहिन का स्वागत-सत्कार करने लगा और उसके पेट में शुक्लपक्ष के चंद्रमा के समान गर्भ भी बढ़ने लगा।

समय आने पर वासुकि की बहिन जरत्कारू के गर्भ से एक दिव्य कुमार का जन्म हुआ। उसके जन्म से मात्रवंश और पित्रवंश दोनों का भय जाता रहा। क्रमशः बड़ा होने पर उसने च्यवन मुनि से वेदो का सांगोपागं अध्ययन किया। वह ब्रहमचारी बालक बचपन से ही बड़ा बुद्धिमान और सात्विक था। जब वह गर्भ में था तभी पिता ने उस के संबंध में अस्ति (है) पद का उच्चारण किया था, इसलिए उसका नाम "आस्तीक" हुआ। 

नागराज वासुकी के घर पर बाल्य अवस्था में बड़ी सावधानी और प्रयत्न से उसकी रक्षा की गई। थोड़े ही दिनों में वह बालक इंद्र के समान बढ़कर नागों को हर्षित करने लगा। इसी बालक अर्थात "आस्तीक" ने सर्पों को मुक्ति प्रदान की और जरत्कारू और ऋषि के पितरों का दुख भी दूर किया। ऋषि-पत्नी और नागराज वासुकि की बहिन, सबकी मनसा को पूर्ण करने के कारण "मनसा देवी" नाम से विख्यात हुई।






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