परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी , अमृत वचन

परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी , अमृत वचन

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1 :- सुनने वाले लाखों हैं , सुनाने वाले हजारों हैं , समझने वाले सैकड़ों हैं , परंतु करने वाले कोई विरले ही हैं । सच्चे पुरुष वही हैं और सच्चा  लाभ भी उन्हीं को प्राप्त होता है , जो करते हैं । 

2 :- उपदेश करो अपने लिये , तभी तुम्हारा उपदेश सार्थक होगा । जो कुछ दूसरों से करवाना चाहते हो , उसे पहले स्वयं करो । नहीं तो तुम्हारा उपदेश नाटक के अभिनय के सिवा और कुछ भी नहीं है । 

3 :- नाटक में हरिश्चन्द , प्रह्लाद , शंकराचार्य और चैतन्य महाप्रभु के पार्ट बहुत कुछ किये जाते हैं , परंतु इनसे उन पार्ट करनेवालों को सिवा नौकरी के और क्या मिलता है । वैसे ही कोरे अभिनय से तुम्हारा आत्मिक लाभ कुछ भी नहीं है । अभिनय छोड़कर आचरण करो । 

4 :- संसार में भली - बुरी दोनों ही चीजें हैं । जो जिसका ग्राहक है , उसे वही मिलती है । तुम बुराई को छोड़कर भलाई के ग्राहक बनो । फिर देखो , तुम्हें भलाई - ही - भलाई मिलेगी । 

5 :- भगवान का चिन्तन ही परम लाभ | है और भगवान को विस्मृति ही परम हानि है । और इसके अनुसार भगवान का चिन्तन करते हुए ही जगत के सब काम करने की चेष्टा करो । 

6 :- भगवान पर जो तुम्हारा विश्वास है , उसे कभी डिगने न दो ; जहाँतक बढ़ सके , बढ़ाओ । भगवान में विश्वास एक महान् बल है । भगवान में विश्वास रखने वाला पुरुष ही भीतरी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके निर्भय हो सकता है । 

7 :- किसी से डरो मत ; डरो बुरे आचरणों से , अपने हृदय की गंदगी से और भगवान के प्रति होने वाले अविश्वास से । जिसके मन से भगवान का विश्वास उठ गया , यह निश्चय समझो कि उसकी आध्यात्मिक मृत्यु ही हो गयी । 

8 :- किसी के द्वारा अपनी कोई महत्त्वपूर्ण सेवा बन पड़े तो बदला चुकाने जाकर उसका तिरस्कार न करो । सच्ची सेवा का बदला तुम चुका ही नहीं सकते । तुम तो बस , कृतज्ञताभरे हृदय से , जहाँतक अपने से बने सब तरह से उसकी सेवा ही करते रहो । और सच्चे दिल से ऐसी चेष्टा करो , जिससे उसको न तो तुमसे सेवा कराने में संकोच हो , और न अपनी सेवा का वह बदला ही समझे । 

9 :- सेवा करके भूल जाओ , कराके याद रखो । दुःख पाकर भूल जाओ , देकर याद रखो ; भला करके भूल जाओ , कराके याद रखो । 

10 :- दूसरे के दोषों का न प्रचार करो , न चर्चा करो और न उन्हें याद ही करो । तुम्हारा इसी में परम लाभ है । भगवान सर्वान्तर्यामी हैं , वे किसने किस परिस्थिति में , किस नीयत से कब क्या किया है , सब जानते हैं , और वे ही उसके फल का भी विधान करते हैं । ' तुम बीचमें पड़कर अपनी बुद्धि का दिवाला क्यों निकालने जाते हो , और झूठी सच्ची कल्पना करके दोषों को ही बटोरते हो ? ' 


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