रामायण में राजा दशरथ की मृत्यु के बाद क्या हुआ | RAMAYAN

रामायण में राजा दशरथ की मृत्यु के बाद क्या हुआ | RAMAYAN


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राजा दशरथ की मृत्यु

राजा दशरथ को अपनी मृत्यु का पहले से ही आभास हो गया था । उन्होंने अपनी पत्नी कौशल्या से कहा- " मेरी मृत्यु का समय आ चुका है । इस अंतिम घड़ी में मैं अपने पुत्रों को देख भी नहीं पाऊँगा । मैं अपने कर्मों का फल भोग रहा हूँ । " 

ऐसा कहकर राजा दशरथ के मुख से अन्तिम शब्द ' राम - राम ' निकले और उन्होंने इस संसार से विदा ली । यह सब देखकर शोकाकुल रानियाँ विलाप करने लगी । अयोध्यानगरी पर दुर्भाग्य का साया पड़ गया था । मंत्रियों में आपसी विचार - विमर्श होने लगा । राजा दशरथ के मृत शरीर को तेल के कड़ाहे में रखकर सुरक्षित रखा गया ।

राजा दशरथ के निधन के उपरांत 

राजा दशरथ की मृत्यु हो जाने पर अगले दिन महर्षि वशिष्ठ को मंत्रिपरिषद् की आपात बैठक बुलानी पड़ी । राजगद्दी को खाली रखना उचित नहीं था , अत: बैठक में तय किया गया कि भरत को तुरंत वापस बुला लिया जाए । इस समय भरत अपने ननिहाल में ही थे । बैठक के समाप्त होते ही दूतों को भरत को बुलाने के लिए कैकेय राज्य भेजा गया । भरत और शत्रुघ्न तुरंत दूतों के साथ चल दिए । भरत व शत्रुघ्न ने दूतों से बुलाये जाने का कारण पूछा , लेकिन दूतों ने उन्हें सही बात न बताकर केवल इतना कहा कि आपको किसी आवश्यक कार्य के लिए बुलाया गया है । 

आठ दिनों की यात्रा करने के बाद दोनों भाई दूतो के साथ अयोध्या पहुंचे । संपूर्ण अयोध्या नगरी गहरे शोक में डूबी हुई थी । कहीं भी किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी । भरत को देखते ही लोग मुँह फेर लेते थे । यह देख भरत को मन में कुछ संदेह सा होने लगा । वे माता कैकेयी के पास गये । नाना के घर की कुशलता का समाचार सुनाने के बाद भरत ने राम और लक्ष्मण के बारे में पूछा । 

कैकेयी भरत को शुभ समाचार सुनाने को पहले से ही व्याकुल हो रही थी । उसने प्रसन्नतापूर्वक कहा- " पुत्र भरत ! तुम्हारे पिता का निधन हो गया है । उन्होंने अपने जीवन में सभी सुखों का भोग कर लिया था । उनकी मृत्यु पर शोक करना जरूरी नहीं है । मैंने राम को चौदह वर्षों के लिए वनवास भेज दिया है । लक्ष्मण और सीता भी उसके साथ वन में चले गए है । अब तुम अयोध्या के राजा हो । मैंने तुम्हारे मार्ग की सभी बाधाएं दूर कर दी है । " 

भरत के हाथों पिता का दाह - संस्कार

भरत को माता की बातें विष के समान अत्यन्त कटु अनुभव हो रही थी अत: उन्होंने दुखी होकर विलाप करना आरम्भ कर दिया । धीरे - धीरे उनका यह रोना क्रोध में बदल गया । वे अपनी माता कैकेयी से अत्यन्त क्रोधित स्वर में बोले- " हे पापिन , तुमने यह क्या कर डाला ! तुमने इक्ष्वाकु वंश को कलंकित कर दिया है । इस प्रकार के अपमान का सामना करने से अच्छा होता यदि तुम मुझे जन्म लेते ही मार देती । " 

भरत के आने का समाचार पाकर मंत्री भी वहाँ पहुँचे । भरत ने उनसे कहा- “ मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मेरी माँ ने नीचतापूर्वक जो कार्य किए हैं , उनसे मेरी तनिक - सी भी सहमति नहीं है । " यह कहकर अत्यधिक क्रोध और क्षोभ में भरे भरत माता कौशल्या से मिलने उनके महल में चले गए । कौशल्या ने देखते ही उन्हें गले से लगा लिया और माता के गले लगकर वह बहुत रोए । कौशल्या उन्हें धैर्य बँधाती रही । 

भरत रात को माता कौशल्या के पास ही ठहरे । वे माता कौशल्या को बार - बार यही विश्वास दिलाते रहे कि माता कैकेयी के कुकृत्य के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं था । सवेरा हो चुका था । राजा दशरथ को पंच - तत्वों में विलीन करने हेतु चंदन की एक चिता बनाई गई । भरत के हाथों पिता का दाह - संस्कार विधिपूर्वक किया गया । 

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