आत्म चिंतन करने से होगा कल्याण | onlinegurugyan

आत्म चिंतन करने से होगा कल्याण 

आत्म चिंतन करने से होगा कल्याण

शास्त्रों का सुनिश्चित मत है कि यह मनुष्य - जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है , लेकिन विडम्बना है कि मनुष्य - जन्म लेने के पश्चात् हम अपने मार्ग से भटक गये हैं , अपने स्वरूप को ही भूल गये हैं , लाखों जन्मों से यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं , ईश्वर बार - बार अवसर देते हैं कि हम अपने को जानें , किंतु हमारी दृष्टि उस ओर जाती ही नहीं । हम ईश्वर के अंश होते हुए भी उनको भूले हुए हैं और संसार जो कि अनित्य है उसको अपना माने हुए हैं ।

यह जानकर भी कि एक दिन हमें यह परिवार , धन , मकान आदि सब कुछ छोड़कर चले जाना है , केवल यहाँ पर किये गये कर्मों का लेखा - जोखा ही हमारे साथ जायगा । इसलिये अभी भी समय है कि हम जाग जायँ और आत्मचिन्तन , आत्म निरीक्षण करना शुरू करें ।

आत्मचिन्तन रूप परमकल्याणकारी साधन

विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है , सत्यके समान कोई तप नहीं है , रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है । पापकर्मों से दूर रहना , सदा पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करना , साधु पुरुषोंके - से बर्ताव और सदाचारका पालन करना - यह कल्याण का सर्वोत्तम साधन है । जहाँ सुख का नाम भी नहीं है , ऐसे इस मानव - शरीर को पाकर जो विषयों में आसक्त रहता है , वह मोह को प्राप्त होता है । विषयों का संयोग दुःखरूप ही है ; अत : वह दुःखों से छुटकारा नहीं दिला सकता ।

विषयासक्त पुरुष की बुद्धि चञ्चल होती है , वह मोह जाल का विस्तार करती है और मोह - जाल से बँधा हुआ पुरुष इस लोक और परलोक में भी दु : ख ही भोगता है । जिसे कल्याणप्राप्ति की इच्छा हो , उसे प्रत्येक उपाय से काम और क्रोध को दबाना चाहिये ; क्योंकि ये दोनों दोष कल्याणका नाश करने के लिये उद्यत रहते हैं । 

सत्य से बढ़कर कुछ नहीं

सत्य से बढ़कर तो कुछ है ही नहीं । सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है , किंतु हितकारक बात कहना सत्य से भी बढ़कर है । जिससे प्राणियों का अत्यन्त हित होता है , वही सत्य है । जिसके मन में कोई कामना नहीं है , जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है , वही विद्वान् है । 

जो अपने वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा अनासक्त भाव से विषयों का अनुभव करता है , जिसका चित्त शान्त , निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मीय कहलाने वाले देह और इन्द्रियों के साथ रहकर भी उनसे एकाकार न होकर विलग सा ही रहता है , वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र कल्याण की प्राप्ति होती है । 

किसी की हिंसा न करे , सबके साथ मित्रता का भाव रखे और यह मनुष्य - जन्म पाकर किसी के साथ वैर न करे । जो आत्मतत्त्व का ज्ञाता तथा मन को वश में रखने वाला है , उसे चाहिये कि किसी वस्तु का संग्रह न करे , संतोष रखे और कामना तथा चञ्चलताका त्याग कर दे ।

परम कल्याण की सिद्धि

जिन्होंने भोगों का त्याग कर दिया है , वे कभी शोक में नहीं पड़ते । जो परमात्मा को जीतने की इच्छा रखता हो , उसे तपस्वी , जितेन्द्रिय , मननशील , संयतचित्त और विषयों में अनासक्त रहना चाहिये । जीव सदा कर्मों के अधीन रहता है । वह शुभकर्मों के अनुष्ठान से देवता होता है , शुभ अशुभ दोनों के आचरण से मनुष्य - योनि में जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मों से पशु - पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म ग्रहण करता है । उन - उन योनियों में जीव को सदा जरा - मृत्यु तथा नाना प्रकार के दुःखों का भोग करना पड़ता है । इस प्रकार संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी संताप की आग में पकाया जाता है ।

देवर्षि नारदजी आगे बताते हैं - यह देह पञ्चभूतों का घर है । इसमें हड्डियों के खम्भे लगे हैं , यह नस - नाड़ियों से बँधा हुआ , रक्तमांस से लिपा हुआ और चमड़े से मढ़ा हुआ है । इसमें मल - मूत्र भरा है , जिसके कारण दुर्गन्ध आती है । यह जरा और शोक से व्याप्त , रोगों का आश्रय , दुःखरूप , रजोगुणरूपी धूल से ढका हुआ और अनित्य है , अतः हमें इसकी आसक्ति का त्याग कर देना चाहिये । 

जहाँ चित्त की आसक्ति बढ़ने लगे , वहीं दोष दृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्ट को बढ़ाने वाला समझना चाहिये । ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है ।

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