परमात्मा का सर्वत्र सदा अनुभव कैसे करें ?

परमात्मा का सर्वत्र सदा अनुभव कैसे करें ?

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परमात्मा का सर्वत्र सदा अनुभव

जो सदा सर्वत्र एकमात्र परमात्मा को ही व्याप्त देखता है और जगत में होने वाली प्रत्येक छोटी - से छोटी और बड़ी - से - बड़ी घटना को परमात्मा का ही लीला विलास या परमात्मा का ही प्रकाश समझता है , वह जगत के द्वन्द्वों से कभी प्रभावित नहीं होता । जगत में दिखायी देनेवाले सुख - दुःख , लाभ - हानि , जय - पराजय , मान - अपमान , प्रिय अप्रिय , शुभ - अशुभ , स्तुति - निन्दा आदि में उसे अनुकूलता प्रतिकूलता की अनुभूति नहीं होती , उनमें राग - द्वेष नहीं होता ; वह समभाव से केवल परमात्मा का ही सर्वत्र सदा अनुभव करता है । 

मोह - भय विषाद से मुक्त

परमात्मा एक है , अनन्त है , महान् है । वह सदा सर्वत्र व्याप्त है । ये सारे खेल उसी के आविर्भाव हैं ; वस्तुतः सर्वत्र सदा वही वह है । उसके सिवा अन्य किसी का भी कोई अस्तित्व नहीं है । इस प्रकार जानना ही वास्तविक जानना है और जो ऐसा जान लेता है , इस परम सत्यमें परिनिष्ठित हो जाता है , वह सदा ही मोह - भय विषाद से मुक्त रहता है । 

परमात्मा के स्वरूप को जानना

इस विक्षुब्ध , परिवर्तनशील , अनित्य , असत् प्रपञ्चके रूपमें सदा शान्त , सम , नित्य , सत्य परमात्मा ही अभिव्यक्त है । महासागर की अनन्त तरङ्गे जैसे प्रशान्त महासागर ही हैं , उसी प्रकार यह सब परमात्मा का ही स्वरूप है । तरङ्गों का स्वभाव ही है उठना - मिटना ; इससे न तो महासागर की शान्ति में कोई बाधा पड़ती है , न उसके स्वरूप में ही कोई परिवर्तन होता है । इसी प्रकार परमात्मा में दिखने वाला यह परिवर्तनशील प्रपञ्च परमात्म - स्वरूप की सत्ता , चेतनता , आनन्दमयता , समता और एकता में कोई भी परिवर्तन नहीं लाता । इस तत्त्वका अनुभव करना ही परमात्मा के स्वरूप को जानना है । 


जो परमात्मा के इस स्वरूप को जान लेता है , वह स्वयं परमात्मस्वरूप ही हो जाता है ; क्योंकि वहाँ परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी सत्ता की कल्पना ही नहीं रह जाती । 

परमात्मा के तत्त्व को जानने वाला

इस प्रकार परमात्मा को जानने वाले तथा परमात्मा में स्थित पुरुष के व्यवहार - काल में सब कार्य होते दिखने पर भी वह हर्ष - उद्वेग से सदा मुक्त रहता है । व्यवहार - जगत में उसके द्वारा सारे कार्य होते दिखने हैं अथवा उसके व्यवहार में राग - ममता आदि की कल्पना भी होती है , पर वह वस्तुतः सर्वथा रागरहित , ममतारहित होता है , इससे उसके द्वारा होते दिखायी देनेवाले कार्य भी राग और ममता से रहित होते हैं । व्यवहार में उसके द्वारा नाटक के पात्र के अभिनय की भाँति यथायोग्य सारे आचरण होते हैं । यथासमय उसमें विभिन्न रसों की चेष्टाएँ देखी जाती हैं , पर वह सब उसका खेल होता है , लीलामात्र होती है ; और वह खेल , वह सारी लीला उस खिलाड़ी - लीला करनेवाले अभिनेता की ही अभिव्यक्ति होती है । वस्तुतः खेलनेवाला ही खेल बनता है । दर्शक उसके अभिनय को देखकर भयभीत , चकित , हर्षित , क्षुब्ध , शान्त , अशान्त होते हैं , पर वह सदा स्वरूपस्थित निर्विकार रहता है , इसी प्रकार वह परमात्मा के तत्त्व को जानने वाला परमात्मा में स्थित पुरुष भी नित्य स्वरूपस्थित शान्त रहता है । 


परमात्मज्ञानी यदि प्रवृत्तिमय व्यवहार जगत में है तो उसके द्वारा विभिन्न क्रियाएँ होती देखी जाती हैं , पर वे सारी क्रियाएँ स्वाभाविक ही सर्वहित , सर्वकल्याण करनेवाली हैं । उसके द्वारा उसी प्रकार किसी का कभी अकल्याण नहीं होता , जैसे अमृत के द्वारा कोई मरता नहीं । 


व्यवहार - जगत्में ऐसे महापुरुषका अस्तित्व जगत का - जगत के समस्त प्राणियों का परम कल्याण करनेवाला होता है , वह सबका पथप्रदर्शक होकर सभी को परमात्मा के स्वरूप की उपलब्धि कराने में सहायता करता है । वह स्वयं तो मुक्त होता ही है , अन्य अनेक की मुक्तिका निमित्त बनता है । 

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